जैन मुनि विश्‍वयश महाराज ने सम्‍मेद शिखर में ली समाधि

जबलपुर, जबलपुर के रहने वाले जैन मुनि वयश महाराज ने बुधवार को संथारा में रहते हुए सम्मेद शिखर मधुबन के 13 पंथी कोठी में दोपहर सवा बारह बजे समाधि ले ली। वे ग्रहस्थ जीवन में हनुमानताल के निवासी रहे। आप गृहस्थ जीवन में आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के अनन्य शिष्य मुनि शाश्र्वत सागर महाराज के अग्रज, मुनि विश्व दृष्टा सागर महाराज के समधी तथा हनुमानताल निवासी पुष्पेन्द्र जैन के पिता एवं साधना जैन के ससुर थे।

नौ दिनों अन्न न जल याग दिया था : बताया जाता है कि मुनिश्री जीवन की अंतिम साधना संथारा जिसे सल्लेखना भी कहते हैं, पर थे। पिछले नौ दिनों से उन्होंने जल तक त्याग दिया था। विशुद्ध सागर महाराज समेत करीब 40 दिगंबर साधु इसी तेरहपंथी कोठी में चातुर्मास कर रहे हैं। दर्जनभर साधु सल्लेखना कर रहे विश्वयशजी महाराज की दिन रात सेवा कर रहे थे। उन्हें कभी भी अकेला नहीं छोड़ा जा रहा था। श्रद्धालु भी उनका दर्शन कर खुद को धन्य महसूस कर रहे थे। विश्वयश महाराज आचार्य विराज सागर महाराज के शिष्य थे। उनके साथ करीब तीन साल पूर्व वह मधुबन पहुंचे थे। तब से वह यहीं थे। उन्होंने सम्मेद शिखरजी में ही सल्लेखना करने का निर्णय लिया था। सम्मेद शिखरजी मधुबन के 13 पंथी कोठी के पीछे उनके पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार कर दिया गया। संन्यास लेने के पूर्व विश्वयश महाराज का नाम प्रेमचंद आजाद जैन था। उनका जन्म पांच जनवरी 1940 को हुआ था। उनके पिता का नाम वीरनलाल जैन था। उन्होंने 1991 में पारिवारिक जीवन से संन्यास ले लिया था।

यह है सल्लेखना : दिगंबर जैन साधु के पैरों में खड़े होकर खाने व पीने की ताकत रहती है, तभी तक भोजन करते हैं और पानी पीते हैं। साधु बनते वक्त ही संकल्प लेते हैं कि जब तक पैरों पर खड़े होने की ताकत रहेगी, तभी तक वह भोजन व जलग्रहण करेंगे। अधिक उम्र होने के कारण जिस दिन से पैरों पर खड़ा होने की ताकत खत्म हो जाती है। जीवन का अंत नजदीक नजर आने लगता है, उसी दिन से अन्न व जल त्याग देते हैं। इसे साधु अपने जीवन की अंतिम साधना करते हैं, जिसे सल्लेखना या संथारा कहते हैं। धीरे-धीरे वह मोक्ष को प्राप्त करते हैं।

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