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अगर आप दिव्यांग हैं तो पढ़नी चाहिए आपको यह खबर

पढ़िए चार दिव्यांगजनो की कहानी,जो आपको देगी हौंसला

जयपुर। दंगल, मिल्खा सिंह, साइना जैसी कई स्पोर्ट्स पर्सन की फिल्में आपने देखी होंगी. सभी में ऊंचाइयों तक पहुंचने से जुड़ी संघर्ष की कहानियां बताई गई हैं. इनका संघर्ष समाज, परिवार या खेल का ही रहा लेकिन आपको ऐसे दिव्यांग खिलाड़ियों के बारे में बताने जा रहे हैं जिनका संघर्ष इन सबके साथ खुद से भी रहा. किसी के हाथ-पैर नहीं हैं तो कोई देख नहीं सकता. फिर भी इन्होंने देश का नाम रोशन किया. किसी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर लर गोल्ड जीता तो किसी ने सिल्वर. आइए जानते हैं इन खिलाड़ियों और इनके संघर्ष के बारे में.

कानों में गूंजते थे ताने

मध्य प्रदेश के ग्वालियर निवासी सतेंद्र सिंह दोनों पैरों से मुश्किल से चल पाते हैं. उन्होंने बताया कि बचपन में गांव के पास वेसली नदी में तैरते रहते थे. गांव वाले दिव्यांग होने की वजह से ताने मारते थे. तानों से निराश नहीं हुआ बल्कि तानों को आगे बढ़ने के लिए सीढ़ी बना लिया. वर्ष 2007 में डॉ वीके डबास से मिला और फिर जिंदगी को मिशन और मंजिल मिल गई. डबास सर ने तैराकी सिखाई और फिर राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में भाग लेना शुरू किया. जब भी तैरता था तो ताने कानों में गूंजते थे. उन्हीं से ताकत मिली और वर्ष 2009 से राष्ट्रीय पैरालम्पिक के बाद से अब तक एक के बाद एक 24 गोल्ड मेडल जीत चुका हूं. जून 2018 को अपनी पैरा रिले टीम के माध्यम से इग्लिश चैनल को तैरकर पार किया. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पैरालम्पिक तैराक चैंपियनशिप में एक गोल्ड के साथ 3 मेडल हासिल किए. राज्य सरकार ने विक्रम अवार्ड से नवाजा. वर्ष 2020 में राष्ट्रपति ने तेनजिंग नोर्गे राष्ट्रीय साहसिक पुरस्कार से सम्मानित किया. ये पुरस्कार पहली बार किसी दिव्यांग पैरा तैराक खिलाड़ी को दिया गया है. वर्तमान में इंदौर में कमर्शियल टैक्स विभाग में कार्यरत हूं.

पहली महिला जिन्होंने गोल्ड जीता

महाराष्ट्र के नागपुर की रहने वाली कंचन माला पांडे को दिखता नहीं है फिर भी देश की पहली महिला हैं जिन्होंने वर्ल्ड लेवल चैंपियनशिप में ब्लाइंड कैटेगरी में देश के लिए गोल्ड मेडल जीता हो. कंचन रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया में असिस्टेंट मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं. कंचन ने बताया कि जन्म से ही दृष्टिहीन हूं. पिता नेशनल खिलाड़ी थे, इसलिए खेलों के प्रति शुरू से ही रूझान था. 10 साल की उम्र से ही तैराकी शुरू कर दी थी. जीते हुए मेडल ही मोटीवेशन बने. पति विनोद देशमुख का बहुत सपोर्ट रहा. 6 महीने पहले बच्चे का जन्म हुआ और जैसे ही डॉक्टर्स ने फिटनेस सर्टिफिकेट दिया तो तुरंत स्वीमिंग प्रेक्टिस दोबारा शुरू की.

भाई की शादी में गंवाए हाथ, अब तक 125 मेडल जीते

महाराष्ट्र पुणे के खेल अधिकारी सुयश नारायण जाधव ने बताया कि वर्ष 2004 में भाई की शादी के दौरान करंट लगने से उनके दोनों हाथ काटने पड़े थे. स्वीमिंग तो बचपन से करते थे, लेकिन इस हादसे ने उनकी जिंदगी बदल दी. पिता नारायण जाधव ने हिम्मत दी कि मैं बिना हाथ के भी कुछ भी कर सकता हूं. पिता तैराक थे और नेशनल लेवल पर मेडल जीतना चाहते थे, उन्होंने मुझे अपना सपना बताया और उनका सपना पूरा करना मेरा उद्देश्य बन गया. इंटनरेशनल लेवल पर 5 गोल्ड सहित 21 मेडल जीत चुके हैं और राष्ट्रीय और स्टेट चैंपियनशिप सभी मिलाकर अब तक 125 मैडल जीत चुके हैं.

पैर नहीं तो हाथों से चलते है, जीते मेडल

उत्तर प्रदेश के प्रयागराज निवासी विमलेश निशाद जन्म से ही दोनों पैरों से चलने में असमर्थ हैं. चलने के लिए हाथों का इस्तेमाल करते है. निराशा के बादल उनके जीवन में हर रोज ही बरसते थे. कभी समाज के तानों के रूप में तो कभी किसी और रूप में. लेकिन कुछ कर गुजरने का जज्बा हमेशा से दिल में लिए हुए थे. गांव से ही यमुना नदी निकलती है जिसमें तैरकर हर रोज स्कूल जाते थे. तैराकी तो बचपन में ही सीख ली थी लेकिन कभी पैरालंपिक प्रतियोगिता के बारे में नहीं सोचा.

एक दिन एक कोच के संपर्क में आए तो उनसे अत्यधिक प्रभावित हुए. उस कोच के प्रशिक्षण में 6 वर्षों तक पैरा तैराकी का कठौर परिश्रम किया. फिर 2009 में कोलकाता में 50 मीटर पैरा स्विमिंग में हिस्सा लिया और पहले ही प्रयास में सिल्वर मेडल जीत लिया. अब तक राज्य स्तरीय पैरा स्विमिंग प्रतियोगिता में कुल 11 (सिल्वर और कांस्य) पदक जीत चुके हैं.

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