अमृतसर में जलियांवाला बाग के सौंदर्यीकरण में 20 करोड़ रुपये की लागत आई है। अब निर्माण कार्य की गुणवत्ता पर भी सवाल उठने लगे हैं। शनिवार को अमृतसर में हुई भारी बारिश से इसके गलियारे में पानी खड़ा हो गया और पर्यटकों को उसमें से गुजर कर जाना पड़ा। वहीं रविवार को अमर उजाला ने सौंदर्यीकरण की खामियों को उजागर किया तो कई लोगों ने और भी चौंकाने वाली जानकारियां दीं।
वरिष्ठ पत्रकार शम्मी सरीन ने बताया कि जलियांवाला बाग की शहीदी गैलरी में दशकों से मौजूद स्वतंत्रता सेनानी चौधरी बुग्गा मल और महाशय रतनचंद के चित्रों को भी नवीनीकरण के दौरान हटा दिया गया है। अंग्रेजों के दिलोदिमाग में अमृतसर निवासी चौधरी बुग्गामल का खौफ था। जिसके चलते 13 अप्रैल को हुए नरसंहार में पहले ही उनको घर से उठा लिया गया और फांसी की सजा सुना दी गई थी। पंडित मोतीलाल नेहरू ने खुद चौधरी बुग्गामल की पैरवी की तो उनकी फांसी की सजा को काले पानी की सजा में तब्दील कर दिया गया था। इसी तरह महाशय रतनचंद उस दौर में मारवाड़ी फर्मों के लिए टोटों की दलाली का काम किया करते थे। बाकी समय में वे युवाओं को कसरत करवाया करते थे। इनकी गतिविधियों पर भी ब्रिटिश गवर्नमेंट नजर गड़ाए हुए थी। 10 अप्रैल को डॉ. सैफुद्दीन किचलू तथा डॉ. सत्यपाल की गिरफ्तारी के बाद शहर की स्थिति और बिगड़ गई तो 16 अप्रैल को महाशय रतनचंद को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
महाशय रतनचंद को सुनाई गई थी सजा-ए-मौत की सजा
मार्शल लॉ की अदालत में इनको सजा-ए-मौत सुनाई और इनकी चल-अचल संपत्तियों को जब्त कर लिया गया। यह मामला भी इलाहाबाद में पं. मोती लाल नेहरू के पास पहुंचा तो उन्होंने महाशय के मृत्य दंड को उम्र कैद में बदलवाया। इसके बाद उनको अंडमान की जेल में भेज दिया गया। दो साल वहां रखने के बाद उनको बंगाल की अलीपुर, फिर लाहौर और मुल्तान की जेलों में तब्दील किया गया और 17 साल बाद 1936 में उनको रिहा किया गया।
इतिहासकारों से सलाह करनी चाहिए थी
जलियांवाला बाग शहीद परिवार समिति के प्रधान और बाग में शहीद हुए लाला हरिराम बहल के पोते महेश बहल कहते हैं कि अब भी कई परिवार अपने पूर्वजों को शहीद का दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। हालांकि वे बाग के नवीनीकरण के हिमायती हैं, लेकिन मानते हैं कि इसके पुनर्निर्माण के लिए बनाई समिति को अपनी योजनाओं को अमल में लाने से पहले इतिहासकारों से सलाह लेनी चाहिए थी। उनकी मांग है कि जिन पूर्वजों ने देश के लिए कुर्बानी दी है, उन्हें अपने ही देश में कम से कम शहीद का दर्जा तो दिया ही जाना चाहिए।
शहीदों की सूची में बड़ी खामी
इतिहासकार सुरिंदर कोछड़ बताते हैं कि जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 को शहीद होने वाले लोगों के नामों की सूचियों में सबसे बड़ी खामी यह है कि इनमें दर्ज नामों की गणना इस घटनाक्रम के चार माह बाद यानी 20 अगस्त 1919 को आरंभ की गई। उस वक्त तक लोग जलियांवाला बाग कांड के बाद पैदा हुए बदतर हालातों से पूरी तरह वाकिफ हो चुके थे और बहुत से लोगों ने किसी नए झमेले में पड़ने के डर से कांड में शहीद हुए अपने परिजनों की सरकार को जानकारी ही नहीं दी।
शहीदी कुएं पर बने नए ढांचे पर आपत्ति
इतिहासकार सुरिंदर कोछड़ ने बताया कि जिस आसन पर डायर खड़ा था और फायरिंग का आदेश दिया था, उसे भी नवीनीकरण में मिटा दिया गया है। साथ ही (अमर ज्योति) लौ, जो पहले स्मारक के प्रवेश द्वार पर थी, को भी पीछे की ओर स्थानांतरित कर दिया गया है। शहीदी कुएं पर बने नए ढांचे पर भी उन्हें आपत्ति है। वे मानते हैं कि इसका डिजाइन मूल पैटर्न के आधार पर ही होना चाहिए था, जैसा कि इतिहास की किताबों में बताया गया है। नवीनीकरण की गुणवत्ता भी सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि पानी निकासी सिस्टम होने के बावजूद पहली बरसात में यहां पानी जमा हो गया और पर्यटकों को इसमें से होकर गुजरना पड़ा।